जीवन परिचय
बिहारी का जीवन परिचय
कविवर बिहारी का जन्म 1595 में ग्वालियर में माथुर चतुर्वेदी { ब्राह्मण } परिवार में हुआ था। उनके पिता का नाम केशवराय था। बिहारी के पिता बाल्यकाल यानी इनके 8 वर्ष कि अवस्था में इन्हें ओरछा ले आये इनका बचपन बुंदेलखंड में बीता। इनके गुरु का नाम नरहरिदास था
जन्म ग्वालियर जानिए खंड बुंदेलेबाल
तरुणई आई सुगर मथुरा बास ससुराल सु
जयपुर - नरेश सौई राजा जयसिंह अपनी नई रानी के प्रेम में इतनी डूबे रहते थे कि वे महल से बाहर नहीं निकलते थे और राज - काज की ओर कोई ध्यान नहीं देते थे । मंत्री आदि लोग इससे बड़े चिंतित थे , किंतु राजा से कुछ कहने कि शक्ति किसी में ना थी । बिहारी ने यह कार्य अपने ऊपर लिया । उन्होंने दोहा के बाद किसी प्रकार के पास पहुंचाया
नवीन पराग नविन मधुर मधु , नवीन विकास इटि काला
अली कली ही हाथ बंधे , आगे कौन हवाल यो ।
बिहारी की एकमात्र रचना सतसई है । यह मुक्तक काव्य है । इसमें 719 दोहे संकलित है । कतिपय दोहे सहज भी माने जाते हैं । सभी दोहे सुंदर और सराहनीय है हालाँकि टॉनिक विचारपूर्वक ध्यान से देखने पर लगभग 200 दोहे अति उत्कृष्ट है । सतसई में व्रजभाषा का प्रयोग हुआ है । बिहारी ने इसे एकरूपता के साथ रखने का स्तुल्य सफल प्रयास किया और इसे निश्चित साहित्यिक रूप में बनाए रखा । इससे व्रजभाषा मॅजकर निखर उठी ।
इस दोहे ने राजा पर मंत्र जैसा कार्य किया । वे रानी के प्रेम - पाश से मुक्त होकर राज - काज संभालने लगे । वे बिहारी से इतने प्रभावित हुए कि उन्होंने और भी दोहे रचने के लिए कहा और प्रति दोहे पर एक स्वर्ण मुद्रा देने का वचन दिया । बिहारी जयपुर नरेश के दरबार में रहकर काव्य रचना करने लगे , उन्हें पर्याप्त धन और यश मिला
इस सतई को तीन मुख्य भागों में विभक्त कर सकते हैं- नीति विषयक भारत और अध्यात्म भावपूर्ण आदि शृंगारपरक इनमें से श्रृंगवृत्त अधिक है । कला चमत्कार सर्वत्र चातुर्य के साथ प्राप्त होता है ।
सतसई के देखने से स्पष्ट होता है कि बिहारी के लिए काव्य में रस और अलंकार चातुर्य चमत्कार और कशन कौशल दोनों ही अनिवार्य और आवश्यक है । उनके दोहों को दो वर्गों में इस प्रकार भी रख सकते हैं । एक वर्ग में वे दौड़े आएंगे जिनमें रस रोचिर्य का प्राबल्य है रसात्मकता का ही विशेष ध्यान रखा गया है ।
बिहारी ने अपने पूर्ववर्ती सिद्ध कविवरों की मुक्तक रचनाओं , जैसे आर्यासप्तशती , गाथसप्तराती , अमरूक दहक आदि से मूल भाव लिए हैं - कहीं उन भावों को काट छोटकर , सुंदर रूप दिया है कही कहीं उन्नत किया है और कही ज्यों का त्यों ही सा रखा है । सौंदर्य यह है कि दीर्घ भावों को संक्षिप्त रूप में सामर्थ्य के साथ अपनी छाप छोड़ते हुए रखने का सफल प्रयास किया गया है ।
दूसरे वर्ग में वे दोहे हैं जिनमें रसात्मकता को विशेषता नहीं दी गई वरन अलंकार , चमत्कार और बहुमुखीचतुरी या कथन- कलाकौशल को ही प्रधानता दी है । किसी विशेष अलंकार को अतिवचित्र्य के साथ सफलता से निबाहा गया है । रस को उत्कर्ष देते हुए भी अलंकार कौशल का अपकर्ष भी नहीं दिया गया ।
सतसैया के दोहरे , ज्यों नावक के तीर
देखत में छोटे लगन , घाव करर गंभीर लग
टीकाकरण
सतसई पर कतिपय आलोचकों ने अपनी आलोच नाए लिखी है । रीति काव्य से ही आलोचना चलती आ रही है । प्रथम सतसई की मार्मिक विशेषता को सांकेतिक रूप से डांगित करते हुए दोहे और छेद लिखे । उर्दू के शायरों ने भी इसी प्रकार किया । यथा
सतसई पर कई कवियों और इतिहास ने टीकाए लिखी | कुलू ५४ कोशों मुख्य रूप से प्राप्त हुए रत्नाकर जी की बिहारी रत्नाकर नामक एक अंतिम टीका है । यह सर्वांग सुंदर है । सतसई के उर्दू आदि में हुए हैं ।अन्य पूर्वापर्खी कवियों के साथ भावसाम्य भी प्रकट किया गया है । कुछ टीकाएँ फसी और संस्कृत में लिखी गई है ।टीकाकारों ने सतसई में दोहों के में भी अपने विचार से रखे हैं । साथ ही दोहों की संख्या भी न्यूनाधिक दी है ।
इस प्रकार की बहुत ही उक्तियों प्रचलित है । विस्तृत में स्थाई पर आलोचनात्मक पुस्तके भी में इसकी कई टीकाँए भी प्रकाशित हुई हैं । इनकी तुलना विशेष रूप से कविवर देव से की गई और एक और देव को दूसरी ओर बिहारी को छोड़कर सिद्ध करने का प्रयल किया ।
रत्नाकर जी के द्वारा संपादन ' बिहारी रत्नाकर ' नामकेक और कविवर बिहारी ' नामक आलोचनात्मक विवेचन विशेष रूप में अवलोकनीय और प्रभाणिक है ।
काव्यगत सुविधाओं
वर्ण्य विषय
बिहारी की कविता का मुख्य विषय बना है । वह के संयोग , और वियोग दोनों ही पक्षों का वर्णन किया है । संयोग पूक्ष में जीव ने घृणा और अनुभवों का बड़ा ही सक्ष्म चित्रण किया है ।


Good
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