जैन आचार्यों ने बौद्धाचार्यों की तरह ही अपने मत का प्रचार करने के लिए जनभाषा को आधार बनाया। जैनाचार्यों ने इसी भाषा में अपनी रचनाएं प्रस्तुत कीं । यह जनभाषा अपभ्रंश ही थी । जैनाचार्यों की इस भाषा में रची हुए रचनाओं के तीन प्रकार हैं। पहली प्रकार की रचना स्वयंभू, पुष्यदंत आदि कवियों द्वारा रचे गए पौराणिक काव्य हैं। दूसरे प्रकार की रचना रासू, फाग, चर्चरी आदि काव्यों की विवेचन प्रधान मुक्तक रचना है । तीसरे प्रकार की रचना हेमचन्द्र, मेरुतुंग आदि की रची हुई रचनाएं हैं ।
पौराणिक तथा चरित काव्य -
जैन मुनियों ने अपभ्रंश में प्रचुर रचनाएँ लिखीं, जो कि धार्मिक हैं । इसमें सम्प्रदाय की रीति, नीति का पद्यबद्ध उल्लेख है । अहिंसा, कष्ट, सहिष्णुता, विरक्ति और सदाचार की बातों का इसमें वर्णन है । कुछ गृहस्थ जैनों का लिखा हुआ साहित्य भी उपलब्ध होता है । इसके अतिरिक्त उस समय के व्याकरणादि ग्रन्थों में भी इस साहित्य के उदाहरण मिलते हैं । कुछ जैन कवियों ने हिन्दुओं की रामायण और महाभारत की कथाओं के में भी के हैं। ने महाभ से राम और कृष्ण के चरित्रों को अपने धार्मिक सिद्धान्तों और विश्वासों के अनुरूप अंकित किया है। इन कथाओं के अतिरिक्त जैन महापुरुषों के चरित्र लिखे गए तथा लोक प्रचलित इतिहास प्रसिद्ध आख्यान भी जैन धर्म के रंग में रंगकर प्रस्तुत किये गए। इसके अतिरिक्त जैनों ने रहस्यात्मक काव्य भी लिखे हैं । इस साहित्य के प्रणेता शील और ज्ञानसम्पन्न उच्च वर्ग थे | अतः उनमें अन्य धर्मों के प्रति कटु उक्तियाँ नहीं मिलती हैं और वहीं लोक-व्यवहार की उच्चता मिलती है, इनके साहित्य में धार्मिक अंश को छोड़ देने और उसमें मानव हृदय की सहज कोमल अनुभूतियों का चित्रण मिलता है । | इस प्रकार जैन साहित्य के अन्तर्गत पुराण साहित्य, चरित काव्य, कथा काव्य एवं रहस्यवादी काव्य, सभी लिखे गए। इसके अतिरिक्त व्याकरण ग्रन्थ तथा शृंगार, शौर्य, नीति और अन्योक्ति सम्बन्धी फुटकर पद्य भी लिखे गए । पुराण सम्बन्धी आख्यानों के रचियिताओं में स्वयंभू, पुष्यदन्त, हरिभद्र, सूरि, विनयचन्द्र, सूरि धनपाल, नोइन्दु तथा रामसिंह का विशेष स्थान है.
मुक्त काव्य-यों तो जैन साहित्य में चरित काव्य अधिक हैं, फिर भी उसके मुक्तक काव्य रचनाओं की उपेक्षा नहीं की जालकती है । इसमें उपलब्ध मुक्तक काव्य मुख्य रूप से दो प्रकार के हैं। पहले वे जो साधकों को ध्यान में रखकर लिखे गए हैं। दूसरा, वे जो जैन काव्य के आचरण से सम्बन्धित हैं। इन दोनों ही काव्यों का साहित्य और इतिहास दोनों ही दृष्टियों से अत्यधिक महत्त्वपूर्ण है ।
रहस्यात्मक साहित्य - जैन साहित्यकी की एक बहुत बड़ी विशेषता है - रहस्यानुभूति का उल्लेख । यों तो जैन धर्म रहस्यवादी काव्य की संख्या बहुत ही कम है । जोइन्दु का 'परमात्म प्रकाश' और 'योगसार और मुनि रामसिंह का 'पाहुड़ दोहा' जन-साहित्य की उल्लेखनीय रहस्यवादी काव्यकृतियाँ हैं । यह ध्यातव्य है कि जैन दर्शन में यह स्पष्ट उल्लेख किया गया है कि आत्मसान से मिथ्या दृष्टि दूर हो जाती है । फिर परमपद की प्राप्ति सहज रूप में हो जाती है । समान विकल्यों का विलय ही तो परम समाधि है । परम समाधि से सारे संसार के अशुभकर्म समाप्त हो जाते हैं । जोइन्दु ने अपनी रचनाओं को काव्यात्मक ढाँचे में ढालते हुए कहा है कि परमात्मा योग वेद और शास्त्र से नहीं जाना जा सकता है । वह तो निर्मल ध्यान से जाना जा सकता है । दूसरी मुनिराम सिंह ने अपने 'पाहुड़ दोहा' में मूर्तिपूजा का खंडन किया है । इसमें योगपरक शब्दावली प्रयुक्त हुई है । स्त्रीपरक रूपकों के माध्यम से मोक्ष आदि वर्णन अत्याधिक उल्लेखनीय हैं ।
जैन रास सहित्य - जैन साहित्य की एक विलक्षण पहचान यह भी है कि जिस प्रकार बौद्ध सिद्धों ने हिन्दी के पूर्वी भाग में बौद्ध धर्म के वज्रयान मत का प्रचार हिन्दी कविता के माध्यम से किया, ठीक उसी प्रकार जैन साधुओं ने हिन्दी के पश्चिमी क्षेत्र में अपने मत का प्रचार-प्रसार हिन्दी कविता के माध्यम से किया । इन जैन साधुओं की रचनाएं आचार, रास, फागु, चरित आदि शैलियों में उपलब्ध हैं । आचार शैली के जैन- काव्यों में घटनाओं के स्थान पर उपदेशात्मकता की प्रमुखता है ।
हम यह भली-भाँति जानते हैं कि 'रस' शब्द संस्कृत साहित्य में क्रीड़ा और नृत्य से सम्बन्धित था । आचार्य भरत मुनि ने इसे 'क्रीडनीयक' कहा है, वात्स्यायन के कामसूत्र' के रचनाकाल तक 'रास' में गायन का समावेश हो गया । अभिनव गुप्त के अनुसार 'रास' एक प्रकार का रूपक है। हम यह भी देखते हैं कि लोक-जीवन में 'रास' को एक प्रभावशाली रचना शैली का रूप दिया ।

